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Sunday 31 March 2013

प्रेत ने कराया तबादला


वर्षों पुरानी घटना है. दानापुर रेल मंडल में एक उज्ज़ड और झगड़ालू किस्म का कर्मी मोहन सिंह ट्रांसफर होकर आया. उसका तबादला करवाया गया था. वह जहां नियुक्त था वहां सबसे लड़ता झगड़ता रहता था. उसके सहकर्मी और अधिकारी उससे आजिज आ चुके थे. उनकी कई शिकायतों के बाद उसका तबादला किया गया था. दानापुर रेल मंडल के अधिकारियों और कर्मियों को उसके बारे में जानकारी मिल चुकी थी.

मोहन सिंह ज्वाइन करने के बाद तुरंत क्वार्टर की मांग करने लगा. कोई क्वार्टर खाली था नहीं. एक क्वार्टर था जो भुतहा माना जाता था. इसलिये कई वर्षों से बंद पड़ा था. रेल मंडल के अधिकारियों ने उसे वही क्वार्टर आवंटित कर दिया.
वह बेहिचक उसमें प्रवेश कर गया. उसकी सफाई करायी. रंग-रोगन कराया फिर आराम से अकेला रहने चला आया. पहले ही दिन रात को लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनाने बैठा तो उसके आसपास कुछ पत्थर गिरे. वह चौंका लेकिन कहीं कुछ दिखायी नहीं पड़ा. वह अपना काम करता रहा. थोड़ी देर बाद फिर कुछ लकड़ी वगैरह गिरी. एक हड्डी भी गिरी. उसे गुस्सा आया. चीखकर गाली बकते हुए बाला-कौन है रे हरामजादे. हिम्मत है तो सामने आ तो तुझे बताऊं.
तभी ऊपर से एक आदमी का कटा हुआ पांव गिरा. मोहन ने उसे पकड़ा और चूल्हें में झोंक दिया. बोला-अब आ साले...
जोरों से हंसने की आवाज आयी और एक आदमी सामने आ खड़ा हुआ. उसने कहा- वाह बहादुर! तुम बिल्कुल नहीं डरे.लोग तो मेरी आहट से ही कांप जाते हैं.
मोहन--क्या चाहते हो. किसलिये ये सब कर रहे थे.
व्यक्ति-मुझे तुमसे बहुत जरूरी काम कराना है. तुम हिम्मती हो इसलिये मुझे विश्वास है कि तुम कर सकते हो.
मोहन-क्यों करूं तुम्हारा कोई काम...मुझे इससे क्या फायदा होगा...?
---तुम मेरा काम करोगे तो मैं तुम्हारा एक काम कर दूंगा. तुम जो भी चाहो.साथ में कुछ ईनाम भी दूंगा.
---क्या मेरा तबादला वापस पुरानी जगह करा सकते हो....?
---बिल्कुल करा दूंगा...वादा करता हूं...
---तो फिर ठीक है. बोलो तुम्हारा क्या काम है.
---देखो मैं एक प्रेत हूं...मेरा भाई भी प्रेत है. उसे एक तांत्रिक ने कैद कर लिया है. वह उसे एक घड़े में बंद कर कल श्मशान ले जायेगा और जमीन में गाड़कर भस्म कर देगा. फिर वह कभी आजाद नहीं हो सकेगा.
---तो मैं इसमें तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूं.
---तुम अगर घड़ा को तोड़ दोगे तो वह आजाद हो जायेगा.
---यह काम तुम क्यों नहीं कर लेते..?
---तांत्रिक के बंधन के कारण कोई प्रेत यह काम नहीं कर सकता. उसकी शक्ति काम नहीं करेगी.मनुष्य यह काम कर सकता है. इसीलिये मैं कोई साहसी आदमी ढूंढ रहा था.
---ठीक है मैं यह कर दूंगा. लेकिन मेरा तबादला कब कराओगे...?
---मेरा काम होने के एक हफ्ते के अंदर तुम्हारा काम हो जायेगा. तुम्हें दूर से पत्थर मारकर घड़ा फोड़ देना है.
----कब चलना है...?
----आज से ठीक तीन दिन बाद...मैं रात के एक बजे तुम्हें श्मशान के रास्ते में ले चलूंगा जिधर से वह घड़ा लेकर गुजरेगा.
----ठीक है मैं तैयार रहूंगा...
तीसरे दिन रात के वक्त प्रेत नियत समय पर आया और मोहन को लेकर सुनसान इलाके में ले गया.
थोड़ी देर बाद कुछ लोगों के आने की आहट मिली. मोहन ने देखा एक आदमी सिर पर घड़ा लिये जा रहा है. प्रेत ने इशारा किया. उसने जेब से पत्थर निकाला और निशाना लेकर जोर से घड़े पर दे मारा. निशाना सटीक बैठा. घड़ा फूट गया. जोरों के अट्टाहास के साथ एक रौशनी सी उड़ती हुई हवा में विलीन हो गयी. प्रेत ने खुश होकर मोहन से कहा-धन्यवाद..तुमने मेरे भाई को आजाद करा दिया. अब मैं तुरंत तुम्हारा काम कराउंगा. तुम्हारे क्वार्टर में कोई भी आकर रहेगा उसे तंग नहीं करूंगा. तुम जब याद करोगे तुम्हारे पास आ जाउंगा.
अगले दिन रेल मंडल के कार्मिक विभाग के अधिकारी के पास प्रेत पहुंचा और मोहन का तबादला करने को कहा.
अधिकारी ने आनाकानी की और पूछा कि तुम कौन हो..? तुम्हारी पैरवी क्यों सुनूं.
प्रेत ने कहा कि सोच-विचार कर लीजिये. मैं फिर मिलूंगा.
इसके बाद वह गायब हो गया. अधिकारी हैरान रह गया कि वह अचानक गायब कैसे हो गया.
उसी रात अधिकारी जब अपने क्वार्टर में सोया हुआ था. प्रेत ने उसे झकझोर कर उठाया. वह भौंचक रह गया.
प्रेत-तुम्हारे घर के दरवाजे खिड़कियां सब बंद हैं..फिर भी मैं अंदर आ गया. इसी तरह चला भी जाउंगा. समझे मैं कौन हूं? मैं कुछ भी कर सकता हूं. जिंदा रहना चाहते हो तो मेरी बात माननी ही पड़ेगी. मरना चाहते हो तो कोई बात नहीं. मैं अंतिम वार्निंग दे रहा हूं. कल उसका तबादला का आर्डर निकलेगा नहीं तो परसों तुम्हारी अर्थी निकलेगी. सोच लो क्या करना है.
और वह गायब हो गया.अधिकारी मारे भय के कांपने लगा. रातभर नींद नहीं आयी. सुबह आफिस पहुंचा तो सबसे पहले तबादला का लेटर तैयार कराया.
इधर सुबह के वक्त जब मोहन सिंह उठा तो बिस्तर पर 10 हजार रुपयों की गड्डी दिखायी पड़ी. वह समझ गया कि उसका ईनाम है. आफिस पहुंचा तो पता चला कि उसका तबादला आदेश निकल चुका है. वह वापस धनबाद रेल मंडल भेजा जा रहा है.

----छोटे

Monday 11 March 2013

संजीवनी का काढ़ा पीया, अमर हो गया


यह एक सच्ची कहानी है जिसे ऋषिकेश के एक वृद्ध सन्यासी ने सुनाई थी. उसने अपना संस्मरण सुनते हुए बताया था कि युवावस्था में जब उसने सन्यास लिया था तो दो अन्य हमउम्र सन्यासियों के साथ उसने मानसरोवर जाने का प्रोग्राम बनाया. अगले दिन वे हिमालय के रास्ते पैदल रवाना हो गए. वे दिन भर चलते और शाम होते-होते उपयुक्त स्थान देखकर पड़ाव डाल देते. कई दिनों तक की चढ़ाई के बाद एक शाम वे बीच जंगल में विशाल चट्टान पर  ठहरे हुए थे. अंधेरा हो चला था. उन्होंने अलाव जल लिया था और भोजन बनाने की तैयारी में थे. तभी उन्हें थोड़ी दूरी पर एक झाड़ी पर जगमगाहट नज़र आयी. वे कौतुहल वश उसके पास गए तो रौशनी गायब हो गयी. वापस लौटे तो जगमगाहट मौजूद थी.
इसपर एक मित्र सन्यासी ने सुझाव दिया कि दो लोग यहीं रहें और वह उस झाड़ी के पास जाता है. वह झाड़ियों को हिलायेगा जिसमें रौशनी होगी वे लोग आवाज़ लगाकर बता देंगे. यही हुआ. झाड़ी की पहचान हो गयी. सन्यासी ने उसके बहुत सारे पत्ते तोड़े और वापस लौटा. उसने कहा कि इसका काढ़ा बनाकर पी लिया जाये. काफी देर बाद काढ़ा बना तो दो लोग भयभीत हो गए कि पता नहीं क्या होगा. कहीं जहरीला निकला तो....लेकिन जो पत्ते लाया था उसने गट-गट कर उसे पी लिया. फिर तीनों खा-पीकर सो गए.
सुबह जब उनकी नींद टूटी तो उन्होंने देखा कि काढ़ा पीने वाले सन्यासी के शरीर पर पेड़ की छाल जैसी आकृति उभर आयी है और सांस बंद है. नब्ज़ भी  थमी हुई है. उन्हें अफ़सोस हुआ. उसे वहीँ छोड़कर वे अपनी यात्रा पर निकल गए.
कई महीने बाद वे मानसरोवर से वापस लौट रहे थे तो एक जगह उन्हें लगा कि किसी ने उन्हें नाम लेकर पुकारा हो. उन्होंने देखा तो 15 -16  वर्ष का एक बालक उनकी और आ रहा था. वे चकित रह गये. करीब आने पर पूछा  कि वह कौन है और उन्हें कैसे जानता है. इसपर उसने मुस्कुराते हुए कहा -पहचाना नहीं. अकेला छोड़कर चल दिए थे तुमलोग. तुमलोगों के जाने के बाद जब मेरी तन्द्रा टूटी तो लगा कि मेरे शरीर पर केंचुल चढ़ आया है. बहुत कोशिश कर उंगलियों के पास से उसे खरोंचना शुरू किया तो वह धीरे-धीरे शरीर से अलग हुआ. इसके बाद मुझे न कुछ खाने की जरूरत पड़ती है न पीने की. मस्ती में हूँ. बस तुम लोगों के लौटने का इंतज़ार कर रहा था. फिर उसने अपने शरीर से निकला केंचुल भी दिखाया और बोल- अब तुमलोग जाओ मैं तो यहीं रहूँगा.
इसके बाद दोनों सन्यासी कई बार हिमालय पर गये और उस जगह को खोजते रहे लेकिन दुबारा कहीं संजीवनी का पौधा नहीं नज़र आया. उन्हें जीवन भर उस अवसर को चूकने का अफ़सोस रहा.

----छोटे