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Monday 13 August 2018

वायसराय की भुतहा कोठी



छोटे

कहानी 20 वीं शताब्दी के छठे दशक की है। ब्रिटेन में एक वायसराय की एक विशाल और भव्य कोठी थी। वह कोठी भुतहा कोठी के रूप में विख्यात हो चुकी थी। वायसराय के परिवार में सिर्फ एक बेटी बची थी जो शादीशुदा थी और पति तथा बच्चों के साथ दूसरे शहर में रहती थी। उसने कोठी को किराए पर देने की कोशिश की लेकिन जो भी किराएदार आता वह 8-10 दिन से ज्यादा नहीं टिकता। उनका कहना था कि कोठी के सारे दरवाजे सारी खिड़कियां बंद कर दी जाती हैं। सोने के कमरे को पूरी तरह पैक कर दिया जाता है। इसके बावजूद रात को अचानक एक प्रेत प्रकट होता है और हाथ फैलाकर खड़ा हो जाता है। प्रेत ने कभी किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया था लेकिन हर रात उसके प्रकट हो जाने से लोग भयभीत हो जाते थे और भाग खड़े होते थे।
कोठी की मालकिन परेशान थी। उसने कोठी को बेचने की भी कोशिश की लेकिन कोई खरीदार सामने नहीं आया। स्थिति ऐसी हो गई कि वह किसी तरह कोठी से छुटकारा पाने का प्रयास करने लगी। उसे कौड़ी के भाव भी बेच देने को तैयार हो गई।
उन दिनों हमारे एक रिश्तेदार ब्रिटेन के मशहूर कार्डियोलाजिस्ट थे। उन्होंने शादी नहीं की थी। पूरे शान के साथ एकाकी जीवन बिता रहे थे। उन्हें कोठी के बारे में जानकारी मिली। उन्होंने कोठी के मालकिन से बात की। मालकिन ने पूछा कि क्या उन्होंने कोठी के बारे में पूरी जानकारी ले ली है। डाक्टर साहब ने हामी भरी। उन्होंने कहा कि इतनी शानदार कोठी में समस्या क्या है मैं देखना चाहता हूं। अकेला आदमी हूं जोखिम उठाने को तैयार हूं। वायसराय की बेटी की तो जैसे लाटरी ही निकल आई। वह बहुत ही कम कीमत पर से बेचने को तैयार हो गई और जल्द से जल्द कोठी की रजिस्ट्री कर देना चाहती थी। से डर था कि कहीं डाक्टर साहब को कोई भड़का न दे और वे डील से पीछे न हट जाएं।
उसकी शंका गलत भी नहीं थी। डाक्टर साहब के तमाम करीबी लोगों ने कोठी खरीदने की उनकी मंशा जानने के बाद उन्हें समझाने की कोशिश की कि जिस कोठी में कोई 15 दिन भी नहीं टिक पाता उसमें पैसे फंसाने से क्या लाभ। लेकिन डाक्टर साहब अपने निर्णय से टस से मस नहीं हुए। उन्होंने कहा कि उनके पास यह जुआ खेलने के लिए पर्याप्त पैसा है। कोठी शानदार है और कौड़ी के मोल मिल रही है।
बहरहाल डाक्टर साहब ने कोठी खरीद ली। बड़े शौक के साथ उसकी साफ सफाई कराई। उसकी साज-सज्जा में काफी खर्च किया। कोठी के गार्डेन में तरह-तरह के पौधे लगवाए। बाजाप्ता धार्मिक रीति-रिवाज के आधार पर गृह-प्रवेश कराया और उसमें रहने चले आए।
पहली रात वे अपने पलंग पर सो रहे थे तो रात के करीब एक बजे एक व्यक्ति उनके सामने आया। उसने हाथ फैलाया। डाक्टर साहब ने सके हाथ में पानी का ग्लास रख दिया। उसने पानी पीया और चला गया। डाक्टर साहब देर तक जगे रहे लकिन वह वापस नहीं लौटा। इस तरह कई दिनों तक वह आता और कभी पानी कभी व्हिस्की पीकर चला जाता। डाक्टर साहब को लगा कि वह कोई नुकसान पहुंचाने वाली प्रेतात्मा नहीं है। उसे किसी चीज की तलब है जो उसे मिल नहीं पा रही है और कोई उसके मन की बात समझ नहीं पा रहा है। उन्होंने आसपास के लोगों से बात कर पता करने की कोशिश की कि वह किस व्यक्ति की आत्मा है और उसकी मौत कैसे हुई थी। पड़ताल करने के बाद उन्हें पता चला कि वह वायसराय के परिवार से संबंधित था और हार्ट का मरीज था। मौत के समय वह कोठी में अकेला था। डाक्टर साहब मामला समझ गए।
उस रात डाक्टर साहब ने अपने सिरहाने दिल के दौरे की दवा, एक जग पानी और ग्लास रख लिया और आराम से सो गए। रात के वक्त प्रेत के आने पर उनकी नींद टूटी। उन्होंने उसके हाथ पर दवा रख दी और ग्लास में पानी डालकर उसकी ओर बढ़ा दिया। प्रेत ने दवा मुंह में डाली, पानी पीया और चला गया। इसके बाद वह कभी नज़र नहीं आया। कोठी के भुतहा होने की बात धीरे-धीरे खत्म हो गई। बाद में एक बार भेंट होने पर उन्होंने कोठी की चर्चा होने पर बताया था कि उस व्यक्ति को जब दिल का दौरा पड़ा था तो से इतना समय नहीं मिल पाया कि आलमारी से दवा निकाल कर खा सके। दवा मिल जाती तो वह बच जाता। दवा खाने की इच्छा के कारण ही उसकी आत्मा भटक रही थी। कोई उसकी बात समझ नहीं पाता था और डरकर भाग जाता था। दवा खाकर पानी पी लेने से उसकी आत्मा तृप्त हो गई और उसे मुक्ति मिल गई। बस इतनी सी बात थी। कोठी मुझे मिलनी थी मिल गई। उसकी वास्तविक कीमत पर तो मैं से खरीद ही नहीं पाता।
इसके बाद डाक्टर साहब आराम से 12 वर्षों तक उस कोठी में रहे। कभी कोई परेशानी नहीं हुई। चूंकि उन्होंने सादी नहीं की थी और उनका कोई वारिस नहीं था इसलिए मरने के पहले उन्होंने बैंक में जमा नकदी और अपनी अन्य संपत्तियों के साथ उस कोठी को भी बेचकर अपने भतीजों और अन्य करीबी रिश्तेदारों के बीच बांट देने की वसीयत की थी। कोठी पूरे बाजार मूल्य पर बिकी।


Tuesday 24 July 2018

वीरान हवेली की रहस्यमय बुढ़िया



-छोटे

यह कहानी उस जमाने की है जब शिकार खेलने पर प्रतिबंध नहीं था। चार दोस्त हिरन का शिकार करने बिहार के नवादा जिले के गोविंदपुर के जंगलों में निकले। उनके पास दो राइफलें और दो दोनाली बंदूक थीं। उनलोगों ने चार जंगली मुर्गे मारकर शिकार की शुरुआत की। तभी हिरनों के एक झुंड नजर आया। उन्हें निसाने पर लेने के लिए वे बेतहाशा भागे। इसी क्रम में उनमें से एक बिछड़ गया। उसका नाम शेखर था। वह जंगल की पगडंडियों में रास्ता भटक गया। धीरे-धीरे रात होने लगी। न बाकी दोस्तों का पता चल रहा था न जंगल से बाहर निकलने का रास्ता नज़र आ रहा था। शेखर के कंधे पर बंदूक और झोले में दो मुर्गे थे। अब किसी तरह रात काटनी थी और सुबह होने तक इंतजार करना था। शेखर सी तरह जंगल की एक पगडंडी पर चला जा रहा था कि थोड़ी दूरी पर रौशनी नज़र आई। उसने सोचा कि कोई न कोई तो वहां पर होगा। वह रौशनी की ओर बढ़ता चला गया। नजदीक जाने पर देखा कि वह पुराने महल का खंडहर है जिसके कुछ हिस्से ढह गए हैं कुछ बचे हुए हैं। महल का दरवाजा खुला हुआ था। वह बचे हुए हिस्से की ओर बढ़ा और टार्च की रौशनी में सीढ़ियां चढ़ता हुआ पहली मंजिल पर पहुंच गया। वहां एक कंदील जल रही थी। उसने टार्च बुझा दी और वहीं फर्श पर लेट गया। वह सो भी नहीं पा रहा था और जगे रहना भी मुश्किल लग रहा था।
रात को अचानक एक बूढ़ी औरत आई। बुढ़िया ने पूछा-
क्यों बेटे, लगता है बहुत थक गए हो।
शेखर चौंककर उठा। आंखें मलते हुए देखा। वह 90-95 वर्ष की बूढ़ी महिला थी। उसने सफेद साड़ी पहन रखी थी।
शेखर बोला-जी रास्ता भटक गया था। रात काटने की जगह नज़र आ तो आ गया। थका था तो नींद आ गई। लेकिन आप कौन है?
- मैं यहीं रहती हूं। यहां लोग तुम्हारी तरह भटककर ही आते हैं। इस वीराने में जानबूझकर कौन आता है?
-ये किसका महल है? इतने वीराने में किसने, कब, क्यों बनवाया?
-ये एक लंबी कहानी है। लेकिन पहले कुछ खा पी लो फिर कहानी सुनना।
-खाने को क्या मिलेगा ?
-मैं लाती हूं।
-मेरे पास जंगली मुर्गा है।
-ठीक है निकालो।
शेखर ने झोले से निकालकर मुर्गा दिया। बुढ़िया उसे लेकर चली गई। एक घंटे के बाद रोटी और मुर्गा लेकर आई। शेखर ने भोजन कर लिया।
-अब बताओं मां जी।
बुढ़िया ने बताना शुरू किया...।
यह एक जालिम जमींदार का बनवाया हुआ है। यहां उसकी अय्याशी के लिए लड़कियां पकड़कर लाई जाती थीं। जिस भी लड़की पर उसकी नज़र पड़ जाती उसे वह उसके मां-बाप से कहकर बुलवा लेता। आनाकानी करने पर जबरन उठवा लेता। उसके डर से लोगों ने अपनी बेटियों को घर से बाहर निकलने पर रोक लगा दिया था। फिर भी उसके आदमी किस-किस घर में जवान लड़की है, पता कर लेते थे। वह इस हवेली में बुला ली जाती थी। एक बार की बात है। यहां से पांच कोस की दूरी पर एक गांव है रघुनाथपुर। वहां एक किसान परिवार के पास मुंबई से एक रिश्तेदार आए। उनके साथ बेटी सुरेखा भी थी। किसान ने वहां के हालात की जानकारी देकर समझाया कि सुरेखा को घर से बाहर नहीं जाने देना है। सुरेखा आधुनिक लड़की थी। जूडो-कराटे जानती थी। उसने कहा कि मुंबई से गांव में आई है तो गांव का जीवन देखेगी। जमींदार उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। वह अपनी जिद में खेत-खलिहान बाग-बगीचे का चक्कर लगाती रहती।
एक दिन जमींदार की सवारी उधर से गुजर रही थी। उसकी नज़र सुरेखा पर पड़ गई। उसने से रोककर पूछा-
तुम इस गांव की तो नहीं हो। कहां से आई हो? किसके घर पर ठहरी हो?
सुरेखा ने पूछा-
तो तुम्हीं जमींदार हो जो लड़कियों को उठा लेते हो?
-बहुत समझदार हो? कहां ठहरी हो?
तभी किसान भागा-भागा वहां पहुंचा जमींदार से बोला-
सरकार ये मेहमान है। एक-दो रोज में चली जाएगी।
-ठीक है आज तो है। आज रात को यह मेरी मेहमान होगी। शाम को इसके लिए सवारी भेज दूंगा।
इतना कहकर जमींदार चला गया।
किसान ने सुरेखा से विफरकर कहा-
मना किया था न बाहर मत घूमो। वही हा जिसका डर था।
-चिंता मत कीजिए। वह मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा और आज के बाद वह इस लायक नहीं रहेगा कि किसी पर जुल्म ढा सके। आप निश्चिंत रहिए। सवारी आने दीजिए। मैं जाउंगी और आराम से लौट आउंगी।
शाम को जमींदार ने डोली भेजा। सुरेखा आराम से उसपर बैठ गई। हवेली में आने के बाद जमींदार उसे हवस का शिकार बनाने के लिए बढ़ा तो उसने कराटे का एक वार कर उसे अचेत कर दिया। इसके बाद हवेली की छत पर चली गई। उसने देखा कि बाहर चप्पे-चप्पे पर उसके हथियारबंद पहरेदार तैनात थे। वह निकलने का उपाय सोच ही रही थी कि जमींदार तलवार लिए हुए छत पर आया।
-तुम बहादुर हो। शेरनी हो। मेरी बात मान लो नहीं तो मरने के लिए तैयार हो जाओ।
सुरेखा ने एक छलांग लगाई। जमींदार की तलवार उसके हाथ से छूटकर नीचे गिर गई। जमींदार ने सुरेखा को उठा लिया और छत से फेंक दिया लेकिन सुरेखा ने गिरते-गिरते उसकी बांह पकड़ ली और वह भी सके साथ नीचे गिर पड़ा। दोनों की मौत हो गई। सुरेखा की मौत की खबर सुनकर उसकी मां मुंबई से आई। उसने जमींदार परिवार को निर्वंश हो जाने का शाप दिया। इसके बाद जमींदार परिवार में लोगों की किसी न किसी कारण मौत होने लगी और सका वंश खतम हो गया। यही इस वीरान हवेली की कहानी है। सुरेखा और उसकी मां की प्रेतात्मा इसी हवेली में रहती है।
-प्रेतात्मा रहती है? लेकिन मुझे तो परेशानी नहीं हुई। थोड़ा डर लगा लेकिन नींद बी आ गई।
-सारी प्रेतात्माएं बुरी नहीं होतीं बेटे। उनकी जिससे दुश्मनी होती है उसी का नुकसान करती हैं। भले लोगों की मदद करती हैं।
-आपको कभी दिखाई पड़ीं।
-हां, अक्सर। अच्छा, अब सुबह होने वाली है। मैं चलती हूं। हवेली से निकलकर बाईं तरफ पगडंडी से सीधा निल जाना। तुमको जंगल के बाहर निकलने का रास्ता मिल जाएगा।
तभी एक 17-18 साल की लड़की आई बोली-
मां अब चलो भी...।
-यह कौन है?....शेखर ने पूछा।
-यह सुरेखा है और मैं इसकी मां।
शेखर कुछ समझ पाता ससे पहले दोनों हवा में विलीन हो गईं। उसने अपनी राइफल उठाई और बाहर निकल आया। हल्का-हल्का उजाला हो चला था। उसने एक नज़र हवेली पर डाली और बुढ़िया की बताई पगडंडी पर बढ़ता चला गया।

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Thursday 5 July 2018

रिक्शेवाले का भूत



1965-66 की घटना है।
वह अमावस्या की रात थी। घनघोर अंधेरा था। रात के डेढ़ बज रहे थे। नरेंद्र प्रसाद की ट्रेन बक्सर स्टेशन पर रुकी। वे बाहर निकले। वे पटना में नौकरी करते थे और रोजाना बक्सर से आते-जाते थे। आमतौर पर वे मगध एक्सप्रेस से 9 बजे तक पहुंच जाते थे। उस दिन गाड़ी छूट गई थी। तूफान एक्सप्रेस से लाटे थे। गाड़ी लेट थी।
वे स्टेशन से बाहर निकले तो एक रिक्शा दिखाई पड़ा। उन्होंने रिक्शेवाले से सैनी पट्टी चलने को कहा और भाड़ा तय किए बिना बैठ गए। उन दिनों बक्सर में टेंपो नहीं चलता था। आवागमन का एकमात्र साधन रिक्शा था। सड़क पर स्ट्रीट लाइट था लेकिन थोड़ी-थोड़ी दूरी पर।
स्टेशन परिसर से रिक्शा निकला तो स्ट्रीट लाइट की रौशनी थी। लेकिन एक फर्लांग आगे बढ़ने के बाद अंधेरा मिला। अचानक नरेंद्र प्रसाद की नज़र रिक्शेवाले पर पड़ी तो देखा रिक्शा चल रहा है लेकिन चलाने वाला नज़र नहीं आ रहा है। वे कुछ समझ पाते तबतक गला स्ट्रीट लाइट आ गया और रिक्शावाला नज़र आने लगा। इसके बाद जहां अंधेरा पड़ता वह अदृश्य हो जाता फिर रौशनी होने पर दिखाई देता। नरेंद्र प्रसाद के मन में भय व्याप्त हो गया लेकिन इतनी रात को वे कुछ कर भी नहीं सकते थे। उन्होंने अपने आप को भाग्य के भरोसे छोड़ दिया। रिक्शावाले से कुछ बोलना उन्हें उचित नहीं लगा। राम-राम करते रिक्शा सैनीटाड़ में दाखिल हुआ। नरेंद्र प्रसाद की आदत थी कि वहां गौरीशंकर मंदिर के पास वे जाते वक्त और लौटते वक्त दर्शन जरूर करते थे। उन्होंने मंदिर के पास रिक्शे को रुकवाया और भाड़ा देने लगे। भाड़ा देते समय जब रिक्शेवाले की हथेली पर नज़र पड़ी तो वे चौंक उठे। उसकी हथेली सामान्य आदमी की हथेली से तीन-चार गुनी बड़ी थी। उन्होंने पैसा दिया और मंदिर के अंदर भागे। रिक्सेवाले ने कहा-जाओ बच्चू, गौरीशंकर के चलते बच गए। नहीं तो आज मेरे हाथों मारे जाते। उन्होंने मुड़ के देखा तो वहां न रिक्शा था न रिक्शेवाला। वे मंदिर में गए और मूर्ति के सामने सर पटकने लगे।
घर पहुंचने के बाद उन्होंने किसी से इस घटना का जिक्र नहीं किया क्योंकि घर वाले नाहक डर जाते। लेकिन स दिन के बाद वे देर होने पर पटना में रुक जाना बेहतर समझने लगे।
करीब 10 साल बाद विष्णु दयाल नामक एक व्यक्ति के साथ भी इसी तरह की घटना घटी। वे कृष्णा टाकिज के पास रहते थे। वहां के हुमान मंदिर के प्रति उनकी विशेष श्रद्धा थी। एक दिन जब वे रात के डेढ़-दो बजे बक्सर स्टेशन पर तरे तो बाहर वही रिक्शेवाला मिला। उन्होंने भी देखा कि अंधेरे में वह गायब हो जाता था और रोशनी में दिखाई देता था। वे हनुमान मंदिर के पास उतरे और पैसा देने लगे तो सकी विशाल हथेली देखकर चर गए। पैसा हाथ मे डालकर वे भागते हुए हनुमान जी की मूर्ति के पास आकर दंडवत हो गए। रिक्सेवाले ने कहा-आओ हनुमान जी ने तुम्हें बचा लिया।
इसके बाद देर रात स्टेशन पर तरने वाले कई लोगों का रिक्शेवाले प्रेत से पाला पड़ता रहा। बक्सर के लोग अभी भी उसकी कहनियों को सुनते-सुनाते हैं। उनके मुताबिक उस जमाने में देर रात को को एक गुंडे ने भाड़े के विवाद में एक रिक्शेवाले को चाकू से गोदकर मार डाला था। तब से रात को उसका भूत स्टेशन पर मंडराता रहता था। अब समय बदल चुका है। शहर की आबादी बढ़ गई है। औटो और टैक्सी का जमाना आ गया है। रात के वक्त भी स्टेशन से शहर में जाने में कोई समस्या नहीं है। इसलिए इस तरह की घटनाएं सुनाई नहीं देतीं।

Wednesday 4 July 2018

प्रेतात्मा ने खोला अपनी मौत का रहस्य



-नागेंद्र प्रसाद

झारखंड के घाटशिला की घटना है। सुरेश चंद्र की पहली पत्नी का देहांत हो गया था। उससे उनकी दो बेटियां थी। बड़ी बेटी चंदा छह साल की और छोटी बेटी बिंदा 4 साल की ( सभी नाम काल्पनिक लेकिन घटना सच्ची)। सुरेश बाबू ने बच्चों की देखभाल के लिए दूसरी शादी कर ली।
एक दिन की बात है। शाम का समय था। बच्चे घर से कुछ ही दूरी पर अपने दोस्तों के साथ खेल रहे थे। अचानक गेंद के पीछे भागती हुई चंदा गायब हो गई। बिंदा रोती हुई घर पहुंची। सुरेश बाबू तुरंत से खोजने के लिए निकले। सभी संभावित जगहों पर गए लेकिन चंदा का कुछ पता नहीं चला। घर के सारे लोग परेशान हो उठे।
अगले दिन नदी के किनारे एक बच्ची का शव मिला। सुरेश बाबू बिंदा को लेकर वहां पहुंचे तो देखा लाश चंदा की थी। उन्होंने पुलिस को खबर की। पुलिस ने संदेह व्यक्त किया कि किसी ने दरिंदगी करके उसे मार डाला है। शव को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया। इस बीच बिंदा को वहां एक पका हुआ आम पड़ा हुआ मिला। उसने धीरे से उसे उठा लिया और खा लिया।
शाम होते-होते बिंदा को तेज़ बुखार आया और वह बेहोश हो गई। सुरेश बाबू परेशान हो उठे। वे चंदा के शव को दफनाने के बाद पड़ोसियों के साथ वापस ही लौटे थे कि छोटी बेटी का भी हाल खराब मिला। वे डाक्टर के पास गए। डाक्टर के पास जाते-जाते वह होश में आ गई और उसका बुखार भी खत्म हो गया। डाक्टर ने कहा कि उसे कोई बीमारी नहीं है। थकावट या सदमे से बेहोश हुई होगी। लेकिन घर आने के बाद फिर उसकी हालत पहले जैसी हो गई।
पड़ोसियों ने सलाह दी कि इसे किसी ओझा-गुनी से दिखा लिया जाए। संभव है हवा लगी हो। कुछ लोगों को साथ लेकर वे एक तांत्रिक के पास गए। तांत्रिक सबको लेकर पास के काली मंदिर में गया। वहां सभी लोग तो मंदिर के अंदर चले गए लेकिन बिंदा अंदर जाने को तैयार नहीं हुई और बुरी तरह रोने लगी। तांत्रिक ने पूछा-क्या बात है...तुम अंदर क्यों नहीं जा रही है। रो क्यों रही है।
इसपर बिंदा ने चंदा की आवाज़ में कहा-मैं चंदा हूं। इसे कोई नुकसान नहीं पहुंचाउंगी लेकिन इसके साथ रहूंगी।
-क्यों इसके साथ रहना चाहती हो तुम...। तांत्रिक ने पूछा।
बिंदा के अंदर से चंदा की आवाज़ आने लगी—
-मुझे मेरी नई मां ने नए मामा के मिलकर मारा है। जो आम बिंदा खाई थी उसी को दिखाकर नया मामा नदी तरफ ले गया था। बिंदा के खाने के बाद से ही मैं उसके शरीर में हूं। मुझे बदला लेना है। मैं अकेले उन्हें नहीं मार सकती। इसीलिए अपनी बहन की मदद लेना चाहती हूं। इसका कुछ नहीं बिगाड़ूंगी।
-पुलिस उनको सज़ा दिलवाएगी। तुम इसको छोड़ दो।
-नहीं...मैं बदला लेने से पहले नहीं छोड़ूंगी।
तांत्रिक ने मंत्र पढ़कर पानी का छींटा मारा। बिंदा सामान्य हो गई। मंदिर में गई। पूजा भी की। वापस लौटने के बाद सुरेश बाबू ने अपनी दूसरी पत्नी को खूब फटकार लगाई और घर से निकाल दिया। लेकिन बिंदा के अंदर फिर चंदा की आत्मा सवार हो गई। वह चंदा की आवाज़ में बड़बड़ाने लगी।
इधर पुलिस ने इस एंगल से मामले की छानबीन करनी शुरू कर दी। बिंदा सामान्य रहती फिर अचानक देर रात को घर से निकलकर कुयें के पास बैठकर रोने लगती। सुरेश बाबू ने एक पहुंचे हुए मौलाना से संपर्क किया। पूरी बात बताई। मौलाना ने बिंदा को अपने इल्म का इस्तेमाल कर चंगा कर दिया। इस बीच पुलिस मामले की तह तक पहुंच गई। सुरेश बाबू की दूसरी पत्नी और उसके भाई को गिरफ्तार कर उनके खिलाफ हत्या का मामला दर्ज किया। न्यायालय से उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा मिली।
इसके बाद बिंदा सामान्य जीवन जीने लगी। अपनी पढ़ाई लिखाई टीक से करने लगी। अब वह बड़ी हो गई है लेकिन अभी भी कभी-कभार चंदा की आत्मा उसपर सवार हो जाती है। उस वक्त वह अजीबो-गरीब हरकतें करने लगती है। लेकिन यह कुछ ही समय के लिए होता है।


Tuesday 3 July 2018

एक रहस्य जो अनसुलझा रह गया

यह कहानी मेरे चचेरे भाई की है। उस वक्त वह इलाहाबाद में पढ़ाई कर रहा था और वहीं एक होटल में कमरा लेकर रहता था। उस होटल में ज्यादातर लोग मासिक किराये के आधार पर रहते थे। उनके किराये में सुबह की चाय और दोनों वक्त का सामिष भोजन शामिल था। उसका कमरा होटल की पहली मंजिल पर सीढ़ियों से लगा हुआ था। वह निडर और लड़ाकू मिजाज का था। हमेशा जेब में एक चाकू रखता था। उसने स्वयं यह कहानी सुनाते हुए बताया था कि रोज रात को एक-डेढ़ बजे करीब पायल बजने की आवाज़ सुनाई देती थी। वह सशंकित होकर सोचता था कि इस होटल में कोई लड़की रहती नहीं है तो फिर पायल की आवाज़ कहां से आ रही है। उसके खुराफाती दिमाग में यह बात आई कि हो न हो यहां गुपचुप तरीके से देह व्यापार जैसा कोई धंधा चलता है। जैसे ही आवाज़ आती वह चाकू हाथ में लेकर आवाज का स्रोत तलाशने के लिए कमरे से निकल जाता और पूरे होटल का चक्कर लगाता लेकिन कोई सुराग नहीं मिलता। यह चक्कर करीब एक महीने तक चलता रहा।
एक दिन की बात है वह अपने कमरे के बाहर रेलिंग पर बैठकर सुबह की चाय पी रहा था तभी नीचे आंगन में खड़े रसोइए ने इस तरह बैठने से मना किया। उसने पूछा क्यों न बैठूं इस तरह। कौन रोकेगा।
रसोइए ने कहा कि पहले इस कमरे में जो बाबू रहते थे एक दिन उसी तरह चाय पी रहे थे कि नीचे गिर गए। भाई ने पूछा-अच्छा, फिर क्या हुआ उनका।
रसोइए ने बताया कि उन्हें अस्पताल ले जाया गया लेकिन वे बच नहीं सके। उनकी मौत हो गई। इसीलिए इस तरह कोई बैठता है तो डर लगता है।
बात आई-गई हो गई। रात को पायल की आवाज़ आने और उस आवाज़ के पीछे भागने का सिलसिला जारी रहा। करीब डेढ़ माह इसी तरह गुजर गए। एक दिन वह अपने कुछ दोस्तों के साथ होटल के सामने पान की दुकान पर खड़ा था। अचानक उसने दोस्तों से यह बात साझा कर दी। पान दुकानदार ने पूछा-क्या आप सामने वाले होटल में रहते हैं....। भाई ने कहा-हां। उसने बताया कि उस होटल का मालिक पुराना बदमाश है। उसने इस होटल में बहुत सारे तीर्थयात्रियों को मारकर उनका धन लूटा है। सैकड़ों महिलाओं का बलात्कार कर उनकी हत्या कर दी है। उनकी लाशें आंगन में मौजूद कुएं में खपा दी हैं। इसमें अतृप्त आत्माओं का वास है।
भाई को उसकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ। उसके दोस्तों ने कहा कि आज वे सारे लोग उस कमरे में रात बिताएंगे और देखेंगे कि मामला क्या है।
उस रात करीब सात-आठ लोग हर्वे-हथियार से लैस होकर कमरे में आए। उतने लोग सो तो सकते नहीं थे। कुछ लोग ताश खेलने बैठ गए। कुछ गप्पें मारने लगें। रातभर जगने की तैयारी थी। एक मित्र सीढ़ी के सामने चादर बिछाकर सो गए। रात के करीब डेढ़ बजे वे अकचका कर उठे और कमरे के अंदर आकर बोले कि उन्हें लगा कि कोई उनका गला दबा रहा है और नींद टूट गई। सबने कहा कि आपको वहम हो गया है जाइए सो जाइए। वे सोने चले गए। फिर कुछ देर बाद लौटे और कहा कि फिर कोई गला दबा रहा था। भाई ने कहा कि बैठकर ताश खेलिए। उस रात पायल की आवाज़ नहीं सुनाई पड़ी या फिर  शोरगुल की आवाज़ में दब गई।
अगले दिन इलाहाबाद एक परिचित परिवार की एक युवती जिसे सारे लोग दीदी कहकर पुकारते थे को इसकी जानकारी हो गई। उन्होंने भाई को बुलाया और तुरंत घर बदल देने को कहा। भाई ने बात मान ली और होटल छोड़ दिया। लेकिन आज भी उस रहस्य को समझ नहीं पाया कि आखिर उस होटल में क्या था, जिसे सिर्फ वह महसूस करता था। होटल में रह रहे और लोगों का अनुभव क्या था पता नहीं क्योंकि वह अन्य लोगों से अपनी बातें शेयर नहीं करता था।

Thursday 23 January 2014

रेल की पटरियों पर...

घटना पुरानी है। मेरे मित्र राकेश दिल्ली से उत्तर प्रदेश के अपने पैतृक निवास लौट रहे थे। ट्रेन काफी लेट हो चुकी थी। वे अपने स्टेशन पर उतरे तो रात के डेढ़ बज चुके थे।
छोटे स्टेशनों पर देर रात को सवारी मिलने में दिक्कत होती है। फिर राकेश का घर शहर के बाहर पड़ता था इसलिए वे रेलवे लाइन के किनारे-किनारे चलने लगे। जैसे ही वे प्लेटफार्म छोड़कर पटरियों के किनारे आए उन्होंने एक युवती को साथ चलते देखा। उन्होंने पूछा तो उसने बताया कि वह हास्टल से घर आ रही थी ट्रेन लेट होने के कारण परेशानी में पड़ गई। इत्तेफाक से उसका घर उस गुमटी के पास ही था जहां से राकेश के घर का रास्ता निकलता था। उसने कहा कि ठीक है उसे घर पहुंचा कर ही वह आगे बढ़ेगा। उसने बताया कि वह इंटर में पढ़ती है और उसके पिता का नाम अर्जुन सिंह है। उसने पूछा कि क्या आप बैडमिंटन खेलते हैं। राकेश ने कहा-हां, खेलता हूं। उसने बताया कि वह टूर्नामेंट में उसे खेलते हुए देख चुकी है।
 रेल लाइन के एक तरफ खेत थे। दूसरी तरफ छिटपुट आबादी। कुछ घर अभी बन ही रहे थे। कुछ घरों से रौशनी आ रही थी। उसके साथ बात करते हुए कब हम रेल फाटक के पास पहुंच गए पता ही नहीं चला। उसने इशारे से राकेश को अपना घर दिखाते हुए कहा कि अब वह चली जायेगी। राकेश ने कहा कि उसे घर तक पहुंचा कर आगे बढ़ेगा। लेकिन उसने कहा अब कोई परेशानी नहीं। अंततः राकेश ने कहा कि वह घर पहुंचने के बाद आवाज़ देगी तभी वह आगे बढ़ेगा। बहरहाल उसने अपने दरवाजे पर पहुंचने के बाद आवाज़ दी। वह अपने रास्ते चल पड़ा।
दो चार दिन बाद राकेश शहर की ओर निकला तो उसके घर के पास से गुजरते हुए उसे लड़की की याद आई। उसने पास के एक दुकानदार से पूछा कि अर्जुन सिंह जी का घर कौन सा है। उसने एक घर की ओर इशारा करते हुए बताया कि गेट के पास जो टहल रहे हैं वही अर्जुन सिंह हैं।
राकेश उनके पास गया और कहा-नमस्ते अंकल।
वे राकेश को पहचानने की कोशिश करने लगे। राकेश ने कहा-अंकल तीन चार दिन पहले मैं रात को स्टेशन से रेलवे लाइन होकर आ रहा था तो आपकी बेटी रेखा मेरे साथ आई थी। अब वह कैसी है। अर्जुन सिंह राकेश की बातें खामोशी से सुनते रहे फिर उसे अंदर आने का इशारा किया। हम ड्राइंग रूम में बैठे ही थे कि एक लड़की ट्रे में बिस्किट और पानी रख गई। अर्जुन सिंह ने बताया कि वह उनकी छोटी बेटी शविता है। राकेश ने पूछा-रेखा कहां है। इसपर अर्जुन सिंह ने दीवार की ओर इशारा किया। वहां रेखा की तस्वीर टंगी थी िजसपर माला पहनाया हुआ था। मैं चौंका। अर्जुन सिंह ने बतलायाः दो महीने पहले की बात है। रेखा ट्रेन से से उतरकर रेलवे लाइन से होते हुए पैदल आ रही थी। पीछे से दो भैंसे दौड़ती हुई आईं कुछ लोगों ने शोर मचाया तो रेखा ने पीछे मुड़कर देखा। उनसे बचने के लिए वह रेलवे लाइन पर दौड़ गई। उसी वक्त एक ट्रेन आ रही थी जिससे वह कटकर मर गई। यह कहते-कहते उनकी आंखें डबडबा गईं। फिर थोड़ा संयत होकर पूछा-रेखा बहुत हा हंसमुख लड़की थी. हमारे घर की रौनक थी। पढ़ने में बहुत तेज़ थी। अच्छा बताओ वह तुमसे मिली तो  उदास नहीं लग रही थी न...राकेश ने कहा कि वह सामान्य छात्रा की तरह बात कर रही थी। कहीं से ऐसा नहीं लगा कि...राकेश धीरे से उठा और बोला-अच्छा अंकल चलता हूं।
अर्जुन सिंह ने कहा-ठीक है बेटे आते रहना। राकेश भावुकता में बहता हुआ बाहर निकला। उसकी आंखों के सामने रेखा का चेहरा नाच रहा था।

Thursday 18 April 2013

रहस्यमय मौलाना

आरा शहर की वर्षों पुरानी घटना है. उस जमाने की जब एक्का और बग्गी चला करती थी. करीम मियां कभी-कभी देर रात तक एक्का चलाया करते थे. बड़ी चौक के पास टमटम पड़ाव था. एक रात की बात है. करीम मियां सवारी का इंतजार कर रहे थे. उन्होंने सोचा कि 10-15 मिनट देख लेते हैं सवारी मिली तो ठीक वर्ना घर वापस लौट जायेंगे. कुछ देर बाद वे घर जाने के लिये एक्का मोड़ रहे थे कि आवाज आयी-ए एक्का वाले चलोगे.
करीम मियां ने देखा दो बुजुर्ग मौलाना सफेद कुर्ता पैजामा पहले खड़े थे. उनके गले में सोने की चेन थी. एक के हाथ में छड़ी थी. उन्होंने फिर पूछा- चलोगे..
...क्यों नहीं सरकार जरूर चलेंगे...कहां चलना है....
हमें नवादा कब्रिस्तान वाले मस्जिद में जाना है और फिर यहीं वापस लौटना है. 10-15 मिनट वहां रुकेंगे. चलोगे...
चलूंगा हुजूर....रात काफी हो चुकी है....भाड़ा क्या देंगे....
देखो इक्केवाले.... तुम चलो तुम्हें उम्मीद से ज्यादा पैसे देंगे...
ठीक है सरकार..आइये बैठिये..आपलोग बड़े आदमी हैं जो देंगे रख लेंगे.
वे लोग इक्के पर बैठ गये. करीम मियां ने उसे सड़क पर दौड़ा दिया. मुश्किल से दो किलोमीटर का रास्ता था. सड़क पर ट्रैफिक भी नहीं था. 10 मिनट में पहुंच गये. दोनों मौलाना उतरे और करीम को इंतजार करने को कहकर  मस्जिद की तरफ बढ़ गये. करीम मियां तंबाकू मलने लगे.
पंद्रह मिनट बाद वे वापस लौटे और इक्के पर बैठते हुए वापस लौटने को कहा. करीम खान ने इक्के को वापस लौटा दिया.
रात के सन्नाटे में दौड़ता हुआ इक्का कुछ ही देर में बड़ी चौक पहुंच गया. मौलान नीचे उतरे. उनमें से एक ने पूछा-तुम्हारा नाम क्या है.
करीम ने अपना नाम बताया.
उन्होंने सौ का एक नोट देते हुए कहा-तुम हमें रोज इसी वक्त यहां से नवादा ले जाना और ले आना.
ठीक है सरकार हम रोज आपका इंतजार करेंगे..लेकिन आपने इतना बड़ा नोट दिया है. मेरे पास इसका खुदरा नहीं है.
खुदरा की जरूरत नहीं यह पूरा तुम्हारा है और रोज तुम्हें इतने ही पैसे मिलेंगे.
लेकिन सरकार यह तो बहुत ज्यादा है. इतना तो हम महीनों में भी नहीं कमाते हैं.
वे हंसते हुए बोले-कल ठीक समय पर आ जाना.
उस जमाने में सौ रुपये बहुत ज्यादा होते थे. अच्छे अच्छे अधिकारियों का भी वेतन इतना नहीं होता था. करीम मियां सोचते हुये घर की तरफ बढ़ गये. अगले दिन से वे रात को मौलानाओं का इंतजार करता और हर रोज ुसे सौ का नोट मिल जाता. पैसा आने पर घर की हालत सुधरने लगी. रहन-सहन का स्तर सुधरने लगा. पास पड़ोस के लोगों को समझ में नहीं ाया कि उसकी कौन सी लाटरी लग गयी है. कुछेक लोगों ने पुलिस में शिकायत कर दी. थाना के दारोगा ने रात के वक्त चौक पर सवारी समेत करीम मियां को दबोच लिया और टाउन थाना में लाकर बंद कर दिया. उन्होंने पूछा कि वे लोग कौन सा घंधा करते हैं. करीम ने सफाई देनी चाही तो बोले-ठीक है सुबह में बात करूंगा.
सुबह के वक्त दारोगा जी थाना पहुंचे तो हाजत में करीम खान अकेला नजर आया. उन्होंने पूछा-मौलाना लोग कहां गये.
सरकार हमें झपकी आ गयी थी. आंख खुली तो वे पता नहीं कैसे कहां चले गये.
चाबी तो मेरे पास थी. ताला भी बंद है. फिर वे कैसे निकल गये....दारोगा ने बड़बड़ाते हुये कहा.
सही-सही बताओ तुम्हारे पास इतना धन कहां से आया.
सरकार ये मौलाना लोग रोज मेरे इक्के पर नवादा जाते और वापस आते थे और सौ रुपया रोज देते थे.
वे कोई जिन्न भूत तो नहीं थे...
पता नहीं साहब हम तो गरीब आदमी हैं...भाड़ा इतना ज्यादा देते थे तो उनको ले जाने से मना कैसे करता....
ठीक है तुम जा सकते हो....
करीम खान उसके बाद रात-रात भर टमटम पड़ाव पर पड़ा रहता लेकिन वे मौलाना फिर उसे कभी नहीं मिले.
दारोगा जी के साथ भी अजीबो-गरीब घटनाएं होने लगीं. कई बार अदृश्य हाथों ने थप्पड़ मारकर मुंह लाल कर दिया. उन्होंने कान पकड़ा कि अब कभी बिना जांचे परखे ऐसी कार्रवाई नहीं करेंगे और अपना तबादला करा लिया. आरा के लोग आज भी इस कहानी को याद करते हैं.

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Sunday 31 March 2013

प्रेत ने कराया तबादला


वर्षों पुरानी घटना है. दानापुर रेल मंडल में एक उज्ज़ड और झगड़ालू किस्म का कर्मी मोहन सिंह ट्रांसफर होकर आया. उसका तबादला करवाया गया था. वह जहां नियुक्त था वहां सबसे लड़ता झगड़ता रहता था. उसके सहकर्मी और अधिकारी उससे आजिज आ चुके थे. उनकी कई शिकायतों के बाद उसका तबादला किया गया था. दानापुर रेल मंडल के अधिकारियों और कर्मियों को उसके बारे में जानकारी मिल चुकी थी.

मोहन सिंह ज्वाइन करने के बाद तुरंत क्वार्टर की मांग करने लगा. कोई क्वार्टर खाली था नहीं. एक क्वार्टर था जो भुतहा माना जाता था. इसलिये कई वर्षों से बंद पड़ा था. रेल मंडल के अधिकारियों ने उसे वही क्वार्टर आवंटित कर दिया.
वह बेहिचक उसमें प्रवेश कर गया. उसकी सफाई करायी. रंग-रोगन कराया फिर आराम से अकेला रहने चला आया. पहले ही दिन रात को लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनाने बैठा तो उसके आसपास कुछ पत्थर गिरे. वह चौंका लेकिन कहीं कुछ दिखायी नहीं पड़ा. वह अपना काम करता रहा. थोड़ी देर बाद फिर कुछ लकड़ी वगैरह गिरी. एक हड्डी भी गिरी. उसे गुस्सा आया. चीखकर गाली बकते हुए बाला-कौन है रे हरामजादे. हिम्मत है तो सामने आ तो तुझे बताऊं.
तभी ऊपर से एक आदमी का कटा हुआ पांव गिरा. मोहन ने उसे पकड़ा और चूल्हें में झोंक दिया. बोला-अब आ साले...
जोरों से हंसने की आवाज आयी और एक आदमी सामने आ खड़ा हुआ. उसने कहा- वाह बहादुर! तुम बिल्कुल नहीं डरे.लोग तो मेरी आहट से ही कांप जाते हैं.
मोहन--क्या चाहते हो. किसलिये ये सब कर रहे थे.
व्यक्ति-मुझे तुमसे बहुत जरूरी काम कराना है. तुम हिम्मती हो इसलिये मुझे विश्वास है कि तुम कर सकते हो.
मोहन-क्यों करूं तुम्हारा कोई काम...मुझे इससे क्या फायदा होगा...?
---तुम मेरा काम करोगे तो मैं तुम्हारा एक काम कर दूंगा. तुम जो भी चाहो.साथ में कुछ ईनाम भी दूंगा.
---क्या मेरा तबादला वापस पुरानी जगह करा सकते हो....?
---बिल्कुल करा दूंगा...वादा करता हूं...
---तो फिर ठीक है. बोलो तुम्हारा क्या काम है.
---देखो मैं एक प्रेत हूं...मेरा भाई भी प्रेत है. उसे एक तांत्रिक ने कैद कर लिया है. वह उसे एक घड़े में बंद कर कल श्मशान ले जायेगा और जमीन में गाड़कर भस्म कर देगा. फिर वह कभी आजाद नहीं हो सकेगा.
---तो मैं इसमें तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूं.
---तुम अगर घड़ा को तोड़ दोगे तो वह आजाद हो जायेगा.
---यह काम तुम क्यों नहीं कर लेते..?
---तांत्रिक के बंधन के कारण कोई प्रेत यह काम नहीं कर सकता. उसकी शक्ति काम नहीं करेगी.मनुष्य यह काम कर सकता है. इसीलिये मैं कोई साहसी आदमी ढूंढ रहा था.
---ठीक है मैं यह कर दूंगा. लेकिन मेरा तबादला कब कराओगे...?
---मेरा काम होने के एक हफ्ते के अंदर तुम्हारा काम हो जायेगा. तुम्हें दूर से पत्थर मारकर घड़ा फोड़ देना है.
----कब चलना है...?
----आज से ठीक तीन दिन बाद...मैं रात के एक बजे तुम्हें श्मशान के रास्ते में ले चलूंगा जिधर से वह घड़ा लेकर गुजरेगा.
----ठीक है मैं तैयार रहूंगा...
तीसरे दिन रात के वक्त प्रेत नियत समय पर आया और मोहन को लेकर सुनसान इलाके में ले गया.
थोड़ी देर बाद कुछ लोगों के आने की आहट मिली. मोहन ने देखा एक आदमी सिर पर घड़ा लिये जा रहा है. प्रेत ने इशारा किया. उसने जेब से पत्थर निकाला और निशाना लेकर जोर से घड़े पर दे मारा. निशाना सटीक बैठा. घड़ा फूट गया. जोरों के अट्टाहास के साथ एक रौशनी सी उड़ती हुई हवा में विलीन हो गयी. प्रेत ने खुश होकर मोहन से कहा-धन्यवाद..तुमने मेरे भाई को आजाद करा दिया. अब मैं तुरंत तुम्हारा काम कराउंगा. तुम्हारे क्वार्टर में कोई भी आकर रहेगा उसे तंग नहीं करूंगा. तुम जब याद करोगे तुम्हारे पास आ जाउंगा.
अगले दिन रेल मंडल के कार्मिक विभाग के अधिकारी के पास प्रेत पहुंचा और मोहन का तबादला करने को कहा.
अधिकारी ने आनाकानी की और पूछा कि तुम कौन हो..? तुम्हारी पैरवी क्यों सुनूं.
प्रेत ने कहा कि सोच-विचार कर लीजिये. मैं फिर मिलूंगा.
इसके बाद वह गायब हो गया. अधिकारी हैरान रह गया कि वह अचानक गायब कैसे हो गया.
उसी रात अधिकारी जब अपने क्वार्टर में सोया हुआ था. प्रेत ने उसे झकझोर कर उठाया. वह भौंचक रह गया.
प्रेत-तुम्हारे घर के दरवाजे खिड़कियां सब बंद हैं..फिर भी मैं अंदर आ गया. इसी तरह चला भी जाउंगा. समझे मैं कौन हूं? मैं कुछ भी कर सकता हूं. जिंदा रहना चाहते हो तो मेरी बात माननी ही पड़ेगी. मरना चाहते हो तो कोई बात नहीं. मैं अंतिम वार्निंग दे रहा हूं. कल उसका तबादला का आर्डर निकलेगा नहीं तो परसों तुम्हारी अर्थी निकलेगी. सोच लो क्या करना है.
और वह गायब हो गया.अधिकारी मारे भय के कांपने लगा. रातभर नींद नहीं आयी. सुबह आफिस पहुंचा तो सबसे पहले तबादला का लेटर तैयार कराया.
इधर सुबह के वक्त जब मोहन सिंह उठा तो बिस्तर पर 10 हजार रुपयों की गड्डी दिखायी पड़ी. वह समझ गया कि उसका ईनाम है. आफिस पहुंचा तो पता चला कि उसका तबादला आदेश निकल चुका है. वह वापस धनबाद रेल मंडल भेजा जा रहा है.

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Monday 11 March 2013

संजीवनी का काढ़ा पीया, अमर हो गया


यह एक सच्ची कहानी है जिसे ऋषिकेश के एक वृद्ध सन्यासी ने सुनाई थी. उसने अपना संस्मरण सुनते हुए बताया था कि युवावस्था में जब उसने सन्यास लिया था तो दो अन्य हमउम्र सन्यासियों के साथ उसने मानसरोवर जाने का प्रोग्राम बनाया. अगले दिन वे हिमालय के रास्ते पैदल रवाना हो गए. वे दिन भर चलते और शाम होते-होते उपयुक्त स्थान देखकर पड़ाव डाल देते. कई दिनों तक की चढ़ाई के बाद एक शाम वे बीच जंगल में विशाल चट्टान पर  ठहरे हुए थे. अंधेरा हो चला था. उन्होंने अलाव जल लिया था और भोजन बनाने की तैयारी में थे. तभी उन्हें थोड़ी दूरी पर एक झाड़ी पर जगमगाहट नज़र आयी. वे कौतुहल वश उसके पास गए तो रौशनी गायब हो गयी. वापस लौटे तो जगमगाहट मौजूद थी.
इसपर एक मित्र सन्यासी ने सुझाव दिया कि दो लोग यहीं रहें और वह उस झाड़ी के पास जाता है. वह झाड़ियों को हिलायेगा जिसमें रौशनी होगी वे लोग आवाज़ लगाकर बता देंगे. यही हुआ. झाड़ी की पहचान हो गयी. सन्यासी ने उसके बहुत सारे पत्ते तोड़े और वापस लौटा. उसने कहा कि इसका काढ़ा बनाकर पी लिया जाये. काफी देर बाद काढ़ा बना तो दो लोग भयभीत हो गए कि पता नहीं क्या होगा. कहीं जहरीला निकला तो....लेकिन जो पत्ते लाया था उसने गट-गट कर उसे पी लिया. फिर तीनों खा-पीकर सो गए.
सुबह जब उनकी नींद टूटी तो उन्होंने देखा कि काढ़ा पीने वाले सन्यासी के शरीर पर पेड़ की छाल जैसी आकृति उभर आयी है और सांस बंद है. नब्ज़ भी  थमी हुई है. उन्हें अफ़सोस हुआ. उसे वहीँ छोड़कर वे अपनी यात्रा पर निकल गए.
कई महीने बाद वे मानसरोवर से वापस लौट रहे थे तो एक जगह उन्हें लगा कि किसी ने उन्हें नाम लेकर पुकारा हो. उन्होंने देखा तो 15 -16  वर्ष का एक बालक उनकी और आ रहा था. वे चकित रह गये. करीब आने पर पूछा  कि वह कौन है और उन्हें कैसे जानता है. इसपर उसने मुस्कुराते हुए कहा -पहचाना नहीं. अकेला छोड़कर चल दिए थे तुमलोग. तुमलोगों के जाने के बाद जब मेरी तन्द्रा टूटी तो लगा कि मेरे शरीर पर केंचुल चढ़ आया है. बहुत कोशिश कर उंगलियों के पास से उसे खरोंचना शुरू किया तो वह धीरे-धीरे शरीर से अलग हुआ. इसके बाद मुझे न कुछ खाने की जरूरत पड़ती है न पीने की. मस्ती में हूँ. बस तुम लोगों के लौटने का इंतज़ार कर रहा था. फिर उसने अपने शरीर से निकला केंचुल भी दिखाया और बोल- अब तुमलोग जाओ मैं तो यहीं रहूँगा.
इसके बाद दोनों सन्यासी कई बार हिमालय पर गये और उस जगह को खोजते रहे लेकिन दुबारा कहीं संजीवनी का पौधा नहीं नज़र आया. उन्हें जीवन भर उस अवसर को चूकने का अफ़सोस रहा.

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Friday 23 November 2012

डाकबंगले की भूतनी

1952 -53  के ज़माने की घटना है.  पांच  शिकारी मध्य प्रदेश के जंगलों में शिकार खेलने गए थे. उन्हें ठहरने के लिए जगह नहीं मिल रही थी. डाकबंगला  खाली नहीं था. केयर टेकर ने बताया कि जंगल के अन्दर एक पुराना  डाकबंगला  है जो खंडहर जैसा हो चुका है. पानी की व्यवस्था भी है. अगर चाहें तो उसे  साफ़ सुथरा कर ठहर सकते हैं. उनके पास कोई विकल्प नहीं था. अँधेरा  हो रहा था. इसलिए वे पुराने डाकबंगला  में पहुंचे.एक कमरे को साफ़ सुथरा किया और जमीन पर ही बिस्तर बिछा लिया. अपनी बंदूकें और राइफलें दीवाल में टिका दिन और ताश खेलने बैठ गए देर रात को साथ लाये भोजन को ग्रहण कर सो गए. उनमें से एक जे एन सिंह   को नींद नहीं आ रही थी. उसने सिगरेट जलाई और उसके कश लेने लगा. तभी उसने देखा कि अचानक खिड़की से एक हाथ बढ़ता हुआ उसकी गर्दन की ओर आ रहा है. वह चौंक उठा. और जोरों से चिल्लाया. अन्य लोग उठ गए हाथ गायब हो गया.उसने सबको घटना की जानकारी दी तो उन्होंने कहा कि यह तुम्हारा भ्रम होगा. या सपना देखा होगा. खिड़की से इतनी दूर हाथ कैसे पहुंचेगा. नई जगह में कभी-कभी ऐसा लगता है. सो जाओ. कहीं कुछ नहीं है.
उसने लाख विश्वास दिलाने की कोशिश की कि यह सच है लेकिन किसी ने विश्वास नहीं किया. सारे लोग फिर सो गए. उसने भी सोने की कोशिश की लेकिन नींद नहीं आई.
सुबह उठकर सभी लोग नाश्ता-पानी कर शिकार की तलाश में निकल गए. उस दिन सिर्फ कुछ वनमुर्गियाँ मिलीं जिन्हें शाम को पकाकर उनलोगों ने खाया. थोडा टहल घूम कर वे ताश खेलने लगे. तभी पायल की आवाज़  आई . जैसे कोई दौड़ता हुआ जा रहा हो. इतनी रात में कौन औरत जंगल में दौड़ रही है. उनके मन में सवाल उठा. खिड़की पर जाकर देखा तो कुछ दिखाई  नहीं पड़ा. वे खाना खाकर चुपचाप सो गए. जे एन सिंह को उस रात भी नींद नहीं आ रही थी वे उस हाथ के बारे में ही सोच रहे थे. तभी झपकी  लगी . आख खुली तो देखा कि खिड़की से एक हाथ उनकी  गर्दन तक  पहुँच  चुका है खिड़की पर एक लडकी खड़ी    हंस रही है. वे चिल्लाये . सभी लोग उठ गए. उन्होंने पूरी बात  बताई  और कहा कि चिल्लाता  नहीं तो मेरी  गर्दन दबा  deti. सभी लोग खिड़की के पास गए तो जंगल की ओर एक लडकी  जाती  हुई  दिखाई  पड़ी . उसके पायल  की आवाज़  आ रही थी. सभी लोगों  को विश्वास हो गया कि कुछ न  कुछ चक्कर  है. उसी  की बात  करते  हुए वे सो गए. अगले  दिन वे लोग नाश्ता-पानी कर शिकार  पर निकले . रस्ते में कुछ आदिवासी मिले . उन्होंने पूछा कि आपलोग किधर जा रहे हैं. उन्होंने बताया कि शेर का  शिकार करने  आये  थे. वह मिल नहीं रहा है तो अब  हिरन  मारकर चले  जायेंगे. आदिवासियों ने पूछा कि ठहरे कहाँ हैं. उन्होंने बताया कि पुराने डाकबंगले में.
आदिवासियों  ने चौंककर पूछा कि कब से ठहरे हैं. उन्होंने बताया कि दो  दिनों  से. आदिवासियों  ने हैरानी   से पूछा  कि दो  दिनों  ने ठहरे  हैं और जीवित  हैं.
क्या  मतलब
साहब  वह भूता  डाकबंगला है. वहां एक लडकी  की भटकती  आत्मा  है जो हर  ठहरने वाले  को मार  डालती  है.
किसकी  आत्मा  है वह.
वह एक केयर टेकर की बेटी  थी. एक बार  केयरटेकर  बीमार  था और कुछ शिकारी ठहरे  हुए थे. चौकीदार  के बीमार  होने  के कारण  उसकी बेटी  ही उन्हें खाना  पानी देने  जाती  थी. उन्होंने उसके साथ जबर्दाष्टि  की और maar डाला . तभी से डाकबंगला  वीरान  हो गया. कोई भूला   भटका   ठहरा  तो लडकी  की आत्मा  ने मार  डाला . बंगला  भुतहा  हो गया. आपलोग  भी वहां से हट  जाइये . रुकने  का  विचार  हो तो गाँव  में चले  आइयें .
उनलोगों ने रात किसी तरह काटी  और सुबह होते  ही वापस  लौटने  की तयारी  करने  लगे. रात को वह लडकी  खिड़की के पास आई  और बोली  कि देवी -देवताओं  की कृपा  ने तुम्हें  बचा लिया. फिर कभी इधर मत आना.

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Tuesday 5 June 2012

एक गायक की भटकती आत्मा

 कहानी अतृप्त आत्माओं की-2

घटना उन दिनों की है जब हिंदी सिनेमा अपना स्वरूप ग्रहण कर रहा था और तकनीकी दृष्टिकोण से आज के मुकाबले बहुत पीछे था. मूक फिल्मों का दौर ख़त्म ही हुआ था. ऑडियो की तकनीक शुरू हो चुकी थी. उन दिनों कुछ फ़िल्मी कलाकारों को अपने ऊपर फिल्माए जाने वाले गीत खुद गाने होते थे. उन दिनों स्व. अशोक कुमार सदाबहार हीरो के रूप में जाने जाते थे. उनके प्रशंसकों की तादाद बहुत बड़ी थी.
एक बार की बात है. शाम को अशोक कुमार शूटिंग से वापस लौट रहे थे. उस समय आसमान में बादल छाये हुए थे. ठंढी हवा चल रही थी. उनकी कार जब घर से कुछ पहले रेलवे क्रॉसिंग के पास पहुंचे तो क्रॉसिंग बंद था. अशोक कुमार गाडी से नीचे उतर गए और ड्राईवर से कहा कि गेट खुलने पर गाडी लेकर घर पर पहुंच जाना मैं बागीचे की तरफ  से होता हुआ आ जाऊंगा.. वे मौसम का आनंद लेते हुए  पेड़ पौधों के बीच से होते हुए निकल गए. एक जगह आंधी में टूटकर गिरा हुआ पेड़ दिखाई पड़े तो थोड़ी देर के लिए वहीं बैठ गए. तभी उन्हें बड़ी सुरीली आवाज़ में किसी के गाने की आवाज़ सुनाई पड़ी. गाना उन्हीं की फिल्म का था और उन्हीं का गाया हुआ था. उन्होंने गाने वाले को ढूँढने की कोशिश की लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ा. उन्होंने कहा-भाई! कौन हो? बहुत अच्छा गा रहे हो. सामने आकर गाओ. उधर से आवाज़ आई-पहले पूरा गाना सुन लीजिये.
अशोक कुमार ने उसकी आवाज़ की तारीफ़ की और कहा कि ठीक है भाई गाओ मैं सुन रहा हूं. एक घने पेड़ के ऊपर से गाने की आवाज़ आती रही.
गाना पूरा होने के बाद अशोक कुमार ने गाने को सराहा.
ऊपर से आवाज़ आई-यह गाना मुझे बहुत पसंद था. इसके लिए मैंने आपकी फिल्म 26  बार देखी है. मैं इस गाने को बराबर गता था लेकिन कोई मेरा पूरा गाना सुनता नहीं था. एक दिन मेरा मूड बहुत ख़राब हो गाया. मैं फिल्म देखने गया और सिनेमा हौल की छत से कूदकर अपनी जान दे दी. आपने अखबार में खबर पढ़ी भी होगी.
तब से मैं भटक रहा था कि कोई मेरा गाना सुन ले. आज मैं बहुत खुश हूं कि आपका गाया गाना आप ही को सुनाने का मौका मिला और आपने इसकी तारीफ भी की. अब मेरी आत्मा संतुष्ट हो गयी. मैं अपनी दुनिया में जा रहा हूं. आपका बहुत-बहुत शुक्रिया!....अब इजाज़त दीजिये...अलविदा!.......

(अशोक कुमार ने यह कहानी ४०-४५ साल पहले किसी पत्रिका में छपवाई     थी. पत्रिका का नाम याद नहीं लेकिन पढ़ी हुई कहानी के आधार पर प्रस्तुत कर रहा हूं.)

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Saturday 5 May 2012

कहानी अतृप्त आत्माओं की-1


(अशरीरी आत्माओं का अस्तित्व होता है. इसे विज्ञानं  भी  मानता है. आमतौर पर लोग भूत-प्रेत का नाम सुनते हीं डर जाते हैं. जबकि सच्चाई यह है कि किसी न किसी अतृप्त इच्छा के  कारण वह भटकती रहती हैं. किसी को नुकसान पहुँचाना उनका मकसद नहीं होता. वह तो सिर्फ अपनी अतृप्त इच्छा की पूर्ति के लिए हमारा सहयोग चाहती हैं. वह अपनी बात हमें बताना चाहती हैं. लेकिन हम इतने डरे होते हैं कि उनकी बात, उनका संकेत नहीं समझ पाते. मैं कुछ  ऐसी ही कहानियां सुनाने जा रहा हूँ.)


(1)

भूत बंगले की प्रेतनी

आज से करीब 40  वर्ष पहले की बात है. मेरे एक करीबी रिश्तेदार ब्रिटेन में डॉक्टर थे. गिने-चुने ह्रदय रोग विशेषज्ञों में उनका नाम आता था. उन्होंने शादी नहीं की थी. ब्रिटेन में अपना घर बनवा चुके थे. आराम से रहते थे. एक बार की बात है. उन्हें एक बंगले के बारे में पता चला जिसे भूत बंगला के नाम से जाना जाता था. उसमें कोई रहता नहीं था. उसका मालिक उसे कौड़ी के मोल बेचना चाहता था लेकिन कोई खरीददार नहीं मिल रहा था. डॉक्टर साहब भूत-प्रेत को नहीं मानते थे. पता नहीं उनके मन में क्या आया की अपना मकान बेचकर उन्होंने भूत बंगला खरीद लिया. उसकी रंगाई-पुताई करवाई और गृह-प्रवेश कराकर उसमें रहने चले आये. गृह-प्रवेश के समय भारत से उनके कई रिश्तेदार पहुंचे थे.  जब तक वे रहे, बंगले में चहल-पहल रही. कहीं कोई प्रेत नज़र नहीं आया.उनके वापस लौटने के बाद भी कोई ऐसी घटना नहीं हुई. लेकिन एक रात जब डॉक्टर साहब ड्राईंग रूम में बैठे सिगरेट फूंक रहे थे तो एक अंग्रेज महिला आई और सीने में दर्द की शिकायत करते हुए दवा मांगने लगी. डॉक्टर साहब को आश्चर्य हुआ. गेट पर ताला लगा है. दरवाज़ा बंद है. फिर यह अंदर कैसे चली आई. वे कुछ समझने की कोशिश करते कि वह गायब हो गयी. डॉक्टर साहब सोच में पड़ गए लेकिन ज्यादा ध्यान नहीं दिया. चार-पांच दिन गुजरने के बाद रात के वक़्त जब वह सो रहे थे. वह महिला फिर आई. उन्हें जगाया और दवा मांगने लगी. इसके बाद कभी बरामदे में कभी गार्डेन में नज़र आती रही. इसके बाद वह लगभग हर रात आती दवा मांगती और इसके बाद गायब हो जाती. कई रात इस घटना के घटित होने के बाद एक दिन डॉक्टर साहब ने सोचा कि  इसे दवा देकर देखें क्या करती है. उन्होंने अपने तकिये के नीचे हार्ट की दवा रखी और पास ही एक ग्लास में पानी. रात के वक़्त जैसे ही वह महिला आई डॉक्टर साहब ने दवा उसकी और बढ़ा दी और पानी का ग्लास उसे थमा दिया. महिला ने दवा खायी पानी पी और 'थैंक यू वैरी मच!' कहकर चली गयी.
डॉक्टर साहब इसके बाद करीब 20  वर्षों तक यानी जीवन पर्यंत उसी बंगले में रहे लेकिन वह महिला इसके बाद फिर वह कभी दिखाई नहीं पड़ी. डॉक्टर साहब के देहावसान के बाद उनके परिजनों ने उस बंगले को अच्छी कीमत पर बेची. दरअसल वह महिला दिल की मरीज थी और हार्ट अटैक के कारण उसकी मौत हुई थी जिस वक़्त उसकी मौत हुई उस वक़्त उसे दवा नहीं मिल सकी थी. इसलिए उसकी आत्मा दवा के लिए भटक रही थी. बंगले में जो भी आया उससे उसने दवा मांगी लेकिन लोग डरकर भागते गए और वह बंगला भूत बंगला के नाम से विख्यात हो गया. डॉक्टर साहब डरे नहीं और उसे दवा दे दी. इससे उसकी दवा खाने की इच्छा पूरी हो गयी और वह तृप्त होकर चली गयी.

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Wednesday 25 April 2012

जिन्नात की शादी

आरा शहर की घटना है. लगभग 70  वर्ष पुरानी. लेकिन लोगों के बीच अभी भी कही-सुनी जानेवाली. 
आरा शहर का एक मोहल्ला है शिवगंज. वहां हाल के वर्षों तक रूपम सिनेमा हॉल हुआ करता था. उसके बगल की गली में एक बड़े ही विद्वान पुरोहित रहा करते थे जो अपनी ज्योतिष विद्या की जानकारी के लिए दूर-दूर तक जाने जाते थे. 
एक बार की बात है. रात के करीब 2 बजे वे दूसरे शहर के किसी जजमान के यहां से पूजा संपन्न कराकर लौट रहे थे. अपनी गली के मोड़ पर रिक्शा से उतर कर वे घर की और बढे ही थे कि अचानक एक गोरा चिटठा, लम्बा-चौड़ा आदमी उनके सामने आकर खड़ा हो गया. पंडित जी डर  गए. उन्होंने पूछा-'कौन हो भाई! क्या बात है?'
'आप डरें नहीं. मैं एक जिन्न हूं. आपसे बहुत ज़रूरी काम है.' उसने जवाब दिया.
'अरे भाई! एक जिन्नात को मुझसे क्या काम....'
'आपको एक सप्ताह बाद मेरी शादी करनी है. कर्मन टोला की एक युवती का देहांत उसी दिन होना है. उसी के साथ मेरी शादी आपको करनी है. मुहमांगी दक्षिणा दूंगा.'
'जिन्नात की शादी..? मैंने ऐसी शादी कभी कराई नहीं. इसका विधान भी मुझे नहीं मालूम.'
'पंडित जी! शादी तो आप ही को करनी है. कैसे आप जानें. आज से ठीक आठवें दिन आप रात के एक बजे अबर पुल पर आपका इंतज़ार करूँगा. आपको वहां समय पर पहुँच जाना होगा. यह बात किसी को बताना नहीं है.' इतना कहकर जिन्नात गायब हो गया.
पंडित जी घर पहुंचे. रात भर सो नहीं सके. दूसरे दिन तमाम शास्त्रों को पलट डाला लेकिन जिन्नात की शादी की विधि नहीं मिली. अंततः उन्होंने कई किताबों का अध्ययन कर एक अपना तरीका निकाला.
आठवें दिन पंडित जी! डरते-सहमते रात के एक बजे से पहले ही अबर पुल पर पहुँच गए. एक बजे...डेढ़ बजे..दो बज गए लेकिन जिन्न नहीं पहुंचा. वे समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें. तभी अचानक झन्न की आवाज़ के साथ जिन्नात प्रकट हुआ. उसके चेहरे पर परेशानी झलक रही थी.
' माफ़ कीजिये पंडित जी! यह शादी नहीं हो सकेगी.'
'क्यों क्या हो गया.'
'वह लडकी मरी तो ज़रूर लेकिन मरने के वक़्त जब उसे ज़मीन पर लिटाया गया तो रुद्राक्ष का एक दाना उसके शरीर को छू रहा था. इसके कारण मरने के बाद वह सीधे शिवलोक चली गयी. अब वह वहां से वापस नहीं लौटेगी. इसलिए अब उसके साथ मेरी शादी नहीं हो पायेगी.'
उसने पंडित जी की ओर चांदी के  सिक्कों  की एक थैली बढ़ाते हुए कहा-'आप मेरे आग्रह पर यहां तक आये. इसे दक्षिणा समझ कर रख लीजिये. आपकी बड़ी मेहरबानी होगी.'
पंडित जी ने कहा कि जब शादी करवाई नहीं तो दक्षिणा कैसा. लेकिन जिन्नात उनके हाथ में थैली थमाकर  गायब हो गया.
पंडित जी घर वापस लौट आये. कई वर्षों तक उन्होंने इस घटना का किसी से जिक्र नहीं किया. बाद में अपने कुछ करीबी लोगों को यह घटना सुनाई. धीरे-धीरे लोगों तक यह किस्सा पहुंचा.

----छोटे 


Tuesday 24 April 2012

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 बिहार के छोटे जी के ब्लाग पर रात में मत जाना । अकेले भी मत जाना ।  अगर डरपोक हैं । तब भी मत जाना । क्योंकि इनके ब्लाग पर लिखी हैं - भूत प्रेत की कहानियाँ । इसलिये संभल कर जाना । जी हाँ ! इनका शुभ नाम है - छोटे । और इनकी Industry है - Real Estate और इनका Occupation है - निजी । और इनकी Location है - बक्सर । बिहार India छोटे जी अपने Introduction में कहते हैं -बिहार में जन्मा हूँ । यूपी में पला हूँ । अभी बिहार में हूँ । लेकिन कब तक ? पता नहीं  मैं तरह तरह की कहानियां गढ़ता और सुनता सुनाता रहा हूँ । बच्चे मुझसे भूतों की कहानियां बड़े चाव से सुनते हैं । और इनका Interests है - पढना लिखना । घूमना फिरना । और इनकी Favourite Films है - गाइड । काला पानी । असली नकली । और इनका Favourite Music है - लोक संगीत । और इनकी Favourite Books हैं - ड्राकुला । गाड़ फादर । चंद्रकांता संतति । भूतनाथ । रोहतास मठ । और इनके ब्लाग हैं - रहस्य रोमांच ( भूत प्रेत ) और - At a glance इनके ब्लाग पर जाने हेतु ब्लाग नाम पर क्लिक करें ।

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Tuesday 27 March 2012

मशीन वाला भूत

घटना 1960 के ज़माने की है. अलीगढ आईटीआई में मेरे पिता प्रिंसिपल थे. हमलोग कैम्पस के ही क्वार्टर में रहते थे. गर्मियों के दिन थे. हमलोग बाहर बरामदे में सोये हुए थे. रात के करीब एक बजे सुपरवाईजर आरके सिंह जो सिक्युरिटी का काम भी देखते थे मुझे जगाया और कहा कि अपने पिताजी को बुलाओ. पिताजी अन्दर आँगन में सोये थे. मैंने उन्हें जगाया तो वे बाहर आये तो सिंह साहब ने बताया कि मशीन चल रही है. उसकी आवाज़ यहाँ तक आ रही है. पिताजी ने कहा कि दो-तीन लोगों को साथ लेकर जाइये और देखिये कि वहां कोई है क्या. वे लोग गए और कुछ लोगों को साथ लेकर गए. काफी देर बाद लौटे और बताया कि वहां कोई नहीं था. मशीन अपने आप चल रही थी. उसे बंद कर दिया गया. इतना कहकर वे लोग अपने-अपने घर चले गए. अभी वे लोग घर पहुंचे भी नहीं होंगे कि मशीन चलने की आवाज़ फिर आने लगी. पिताजी को आकर उन्होंने बताया और फिर देखने चले गए. मशीन बंद कर उन्होंने मेन स्विच ऑफ कर दिया. वर्कशॉप बंद करके पिताजी को बताकर घर चले गए. सुबह के तीन बज चुके थे. उस दिन मशीन फिर नहीं चली. मुझे लगा कि यह एक संयोग हो सकता है. दूसरी रात फिर मशीन चलने लगी. चार स्टाफ को लेकर सुपरवाइजर साहब पिताजी के पास आये. उन्होंने कहा कि चौकीदार ने बताया कि एक घंटे से मशीन चल रही है. पिताजी ने जाकर देखने को कहा और मेन स्वीच बंद कर देने को कहा. वे लोग वर्कशॉप गए और मेन  स्विच बंद कर दिया. कोई आदमी वहां नज़र नहीं आया. पिताजी को जानकारी देकर वे सोने चले गए. उस वक़्त रात के दो बज चुके थे. आधे घंटे बाद फिर मशीनें चलने लगीं. फिर वे लोग आये और पिताजी को बताकर वर्कशॉप की और चल दिए. मशीन बंद कर उन्होंने में स्विच का ग्रिप भी निकाल दिया. कोई दिखाई नहीं पड़ा. वे सूचना देकर फिर अपने-अपने घर चले गए. उस रात फिर मशीनें नहीं चलीं. दूसरे दिन सुबह सिंह साहब फोरमैन के साथ आये. उन्होंने कहा कि सर कल सोमवार को प्रैक्टिकल का एक्जाम है. हो सकता है किसी छात्र  का प्रैक्टिकल पूरा नहीं हुआ हो और वह रात में प्रैक्टिस करता हो. सुपरवाइजर साहब ने कहा कि यदि ऐसा है तो वह दिखाई क्यों नहीं देता. हमारे पहुँचते ही गायब कहां हो जाता है. चलिए दिन में देखा जाये. वर्कशॉप खोलकर देखा गया लेकिन कोई नज़र नहीं आया. वर्कशॉप बंद कर वे चले गए. इतवार की रात फिर मशीनें चलने लगीं. सारे लोग परेशान हो गए कि यह कैसे हो रहा है. सोमवार को परीक्षा शुरू होने के वक़्त जब एक्जामिनर आये और जॉब देकर आठ घंटे में उसे पूरा करने को कहा. फिर अपनी जगह आकर बैठ गए. तभी उनकी नज़र टेबुल पर पड़ी. उन्होंने देखा कि वह जॉब बनाकर पहले से रखा हुआ है. उसपर रोल नंबर भी पंच किया हुआ था. इंस्ट्रक्टर को  बुलाकर पूछा तो पता चला कि वह रोल नुम्बर जिस लड़के का है उसकी मौत तीन माह पहले मोटरसाईकिल एक्सीडेंट में हो चुकी है. यह बात पिताजी के पास पहुंची तो उन्होंने कहा कि उसपर नंबर दे दीजिये. लगता है कि उसकी आत्मा भटक रही है. नंबर देकर उसे पास कर देने से उसकी आत्मा को शांति मिलेगी. एक्जामिनर ने नंबर दे दिया. और सचमुच उस दिन के बाद कभी भी रात के वक़्त अपने आप मशीनें नहीं चलीं. हम तीन वर्ष तक वहां रहे लेकिन ऐसी कोई घटना नहीं हुई.

----छोटे