Followers

Monday 11 March 2013

संजीवनी का काढ़ा पीया, अमर हो गया


यह एक सच्ची कहानी है जिसे ऋषिकेश के एक वृद्ध सन्यासी ने सुनाई थी. उसने अपना संस्मरण सुनते हुए बताया था कि युवावस्था में जब उसने सन्यास लिया था तो दो अन्य हमउम्र सन्यासियों के साथ उसने मानसरोवर जाने का प्रोग्राम बनाया. अगले दिन वे हिमालय के रास्ते पैदल रवाना हो गए. वे दिन भर चलते और शाम होते-होते उपयुक्त स्थान देखकर पड़ाव डाल देते. कई दिनों तक की चढ़ाई के बाद एक शाम वे बीच जंगल में विशाल चट्टान पर  ठहरे हुए थे. अंधेरा हो चला था. उन्होंने अलाव जल लिया था और भोजन बनाने की तैयारी में थे. तभी उन्हें थोड़ी दूरी पर एक झाड़ी पर जगमगाहट नज़र आयी. वे कौतुहल वश उसके पास गए तो रौशनी गायब हो गयी. वापस लौटे तो जगमगाहट मौजूद थी.
इसपर एक मित्र सन्यासी ने सुझाव दिया कि दो लोग यहीं रहें और वह उस झाड़ी के पास जाता है. वह झाड़ियों को हिलायेगा जिसमें रौशनी होगी वे लोग आवाज़ लगाकर बता देंगे. यही हुआ. झाड़ी की पहचान हो गयी. सन्यासी ने उसके बहुत सारे पत्ते तोड़े और वापस लौटा. उसने कहा कि इसका काढ़ा बनाकर पी लिया जाये. काफी देर बाद काढ़ा बना तो दो लोग भयभीत हो गए कि पता नहीं क्या होगा. कहीं जहरीला निकला तो....लेकिन जो पत्ते लाया था उसने गट-गट कर उसे पी लिया. फिर तीनों खा-पीकर सो गए.
सुबह जब उनकी नींद टूटी तो उन्होंने देखा कि काढ़ा पीने वाले सन्यासी के शरीर पर पेड़ की छाल जैसी आकृति उभर आयी है और सांस बंद है. नब्ज़ भी  थमी हुई है. उन्हें अफ़सोस हुआ. उसे वहीँ छोड़कर वे अपनी यात्रा पर निकल गए.
कई महीने बाद वे मानसरोवर से वापस लौट रहे थे तो एक जगह उन्हें लगा कि किसी ने उन्हें नाम लेकर पुकारा हो. उन्होंने देखा तो 15 -16  वर्ष का एक बालक उनकी और आ रहा था. वे चकित रह गये. करीब आने पर पूछा  कि वह कौन है और उन्हें कैसे जानता है. इसपर उसने मुस्कुराते हुए कहा -पहचाना नहीं. अकेला छोड़कर चल दिए थे तुमलोग. तुमलोगों के जाने के बाद जब मेरी तन्द्रा टूटी तो लगा कि मेरे शरीर पर केंचुल चढ़ आया है. बहुत कोशिश कर उंगलियों के पास से उसे खरोंचना शुरू किया तो वह धीरे-धीरे शरीर से अलग हुआ. इसके बाद मुझे न कुछ खाने की जरूरत पड़ती है न पीने की. मस्ती में हूँ. बस तुम लोगों के लौटने का इंतज़ार कर रहा था. फिर उसने अपने शरीर से निकला केंचुल भी दिखाया और बोल- अब तुमलोग जाओ मैं तो यहीं रहूँगा.
इसके बाद दोनों सन्यासी कई बार हिमालय पर गये और उस जगह को खोजते रहे लेकिन दुबारा कहीं संजीवनी का पौधा नहीं नज़र आया. उन्हें जीवन भर उस अवसर को चूकने का अफ़सोस रहा.

----छोटे

 

5 comments:

  1. सुन्दर प्रस्तुति है आदरणीय-
    शुभकामनायें स्वीकारें-

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    --
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार (07-03-2013) के “चर्चा मंच-1181 पर भी होगी!
    सूचनार्थ.. सादर!

    ReplyDelete
  3. ऐसे चमत्कारी पौधे तो है जहाँ में.सार्थक प्रस्तुती.

    ReplyDelete